Sunday, December 14, 2008

MEERA


बेजान खड़ी हूँ ;आज
कभी जान थी मुझमे
नाम था मीरा
एक पहचान थी मुझमे
पत्थर की मूरत
बेजान सी एक सूरत
हाथ में एक तारा
दिल में बुझी -बुझी सी एक आस
ना आँखों में आसूं है
नाही दिल में धड़कन
मिटटी में मिलाया था ख़ुद को
क्यूँ तराशा तुमने मुझको
क्यूँ बनाया है मुझको
हो सके तो मिटटी में मिला दो मुझको
मरकर भी जिन्दा रही एहसास में में तेरी
पत्थर की बेजान मूरत ;आज पहचान है मेरी
हो सके तो जिला दो मुझको मेरे प्राण से मिला दो ................................

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